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मेमने

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शरद ऋतु की छुट्टियां थीं। मैं अपने शहर आया था। सर्दी बढ़ रही थी मानो साइबेरिया हो। ऊपर से कभी कभी सर्द हवाएं, जिसे हमारे यहां शीत लहर या सीतलहरी भी कहते हैं। छुट्टियां में,  सर्द  दोपहर में, धूप सेंकने के अलावा क्या काम सर्वोपरि हो? तो मैं रोज दोपहर छत पर धूप सेंकने चला जाता था। दोपहर शांत होती है हमारे यहां की। ठंड में चिड़ियों की भी चहचहाहट थोड़ी कम होती है। ऐसे में दूर एक छत पर दो मेमने शांति भंग किया करते थे। रोज यहीं चलता रहा, छत, धूप और मेमनों का शोर।  फिर एक दिन मोहल्ले के उसी कोने से ढोल ताशों की आवाज आई। मेमने उस दिन छत पर नही आए। मन को अचानक लगा की शायद वो मेमने काटने के लिए न आए हों। और आज ढोल ताशों के बीच थाली में परोस दिए गए हों। मन सहसा विचलित हो गया, उन अनजाने मेमनो के लिए। अगले दिन सुबह धूप नही खिली, फिर भी किसी कारण छत पर गया।। मुड़ कर एक बार उस छत पर देखा, जहां से मेमनो की आवाजें आती थी। दोनो काले मेमने चाव से पुआल खा रहे थे। मन ऐसे प्रफुल्लित हुआ मानो कोई अपना मौत के मुंह से बच निकला हो। "अखिल"